Natasha

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राजा की रानी

मैं पास ही था, इसलिए, स्पष्ट देख सका, सन्यासी की ऑंखों की दीप्ति अस्पष्ट सी हो गयी है, किन्तु तत्काल ही आत्म-संवरण करके वह मुँह पर हँसी लाते हुए बोला, “आऊँगा क्यों नहीं बहिन, अगर जीवित रहा तो बीच-बीच में उत्पात करने के लिए हाजिर होता रहूँगा।”

“सचमुच?”

“जरूर।”

“लेकिन, हम लोग तो जल्द ही चले जाँयगे। जहाँ हम रहेंगे वहाँ आओगे क्या?”

“हुक्म देने पर आऊँगा क्यों नहीं।”

राजलक्ष्मी ने कहा, “आना। अपना पता मुझे लिख दो, मैं तुम्हें चिट्ठी लिखूँगी।”

आनन्द ने जेब से कागज-पेन्सिल निकालकर पता लिखा और उसके हाथ में दे दिया। सन्यासी होकर भी दोनों हाथ जोड़कर मस्तक से लगाते हुए उसने हम दोनों को नमस्कार किया और रतन ने आकर उसकी पद-धूलि ग्रहण की। उसे आशीर्वाद दे वह धीरे-धीरे मकान के बाहर हो गया।
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सन्यासी वज्रानन्द अपना औषधियों का बॉक्स और केनवास का बैग लेकर जिस दिन बाहर गया उस दिन से जैसे वह इस घर का आनन्द ही छीन-छानकर ले गया। यही नहीं, मुझे ऐसा लगा मानो वह उस शून्य स्थान को छिद्रहीन निरानन्द से भर गया। घने सिवार से भरे हुए जलाशय का जल, जो अपने अविश्रान्त चांचल्य के अभिघातों से निर्मल हो रहा था, मानो उसके अर्न्तध्याजन होने के साथ ही साथ लिपटकर एकाकार होने लगा। तो भी, छह-सात दिन कट गये।

राजलक्ष्मी प्राय: सारे दिन घर से बाहर रहती है। कहाँ जाती है, क्या करती है, नहीं जानता, उससे पूछता भी नहीं। शाम को जब एक बार उससे भेंट होती है तो उस वक्त वह या तो अन्यमनस्क दिखाई देती है या गुमाश्ताजी साथ होते हैं और काम-काज की बातें होती रहती हैं। अकेले घर में उस 'आनन्द' की बार-बार याद आती है जो मेरा कोई नहीं है। खयाल आता, यदि वह अकस्मात् आ जाय, तो सिर्फ मैं ही खुश होता यह बात नहीं है, बरामदे की दूसरी ओर चिराग की रोशनी में बैठी हुई राजलक्ष्मी भी, जो न जाने क्या करने की चेष्टा कर रही है, मैं समझता हूँ, उतनी ही खुश होती। ऐसा ही लगने लगा। एक दिन जिनके उन्मुख युग्म-हृदय जिस बाहर का सब प्रकार का संस्रव परिहार करके एकान्त सम्मिलन की आकांक्षा से व्याकुल रहते थे, आज टूटने-विच्छिन्न होने के दिन उसी बाहर की उन्हें कितनी बड़ी जरूरत है? ऐसा लगता है कि चाहे कोई भी हो यदि वह एक बार बीच में आकर खड़ा हो जाय, तो मानो जान बच जाय।

इस तरह जब दिन कटना मुश्किल हो गया, तब रतन एकाएक आकर उपस्थित हो गया। वह अपनी हँसी दबाने में असमर्थ था। राजलक्ष्मी घर पर थी नहीं, इसलिए उसे डरने की ज़रूरत नहीं थी, तो भी वह एक बार सावधानी से चारों ओर नज़र दौड़ाकर आहिस्ते से बोला, “मालूम होता है आपने सुना नहीं।”

मैं बोला, “नहीं, क्या बात है?”

रतन बोला, “दुर्गा माता कृपा करें कि माँ की यही बुद्धि अन्त तक बनी रहे। हम सब दो-चार दिन में ही यहाँ से चल रहे हैं।”

“कहाँ चल रहे हैं?”

रतन ने एक बार और दरवाजे के बाहर देख लिया और कहा, “यह तो ठीक-ठीक अब भी नहीं मालूम कर सका हूँ। या तो पटना या काशी और या- लेकिन, इनके अतिरिक्त तो और कहीं माँ का अपना मकान है नहीं।”

मैं चुप रहा। इतनी बड़ी बात पर भी मुझे चुप और उत्सुकता रहित देखकर उसे ऐसा मालूम हुआ कि मैं उसकी बात पर विश्वास नहीं कर रहा हूँ, इसीलिए, वह अपने दबे गले की सारी ताकत लगाकर बोल उठा, “मैं सच कह रहा हूँ। हमारा चलना निश्चित है। आ:, जान बचे तब तो, है न ठीक?”

मैंने कहा, “हाँ।”

रतन बहुत खुश होकर बोला, “दो-चार दिन और सबके साथ तकलीफ झेल लीजिए, बस। अधिक से अधिक एक हफ्ते की बात और है, इससे ज्यादा नहीं। माँ गंगामाटी की सारी व्यवस्था कुशारी महाशय के साथ ठीक कर चुकी है। अब सामान बाँध-बूँधकर एक बार 'दुर्गा दुर्गा' कहकर चल देना ही बाकी रहा है। हम सब ठहरे शहर के निवासी, क्या यहाँ हमारा मन कभी लग सकता है?” यह कहकर वह प्रसन्नता के आवेग में उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही बाहर चला गया।

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